इस ग़ैबत के ज़मान की सब से बड़ी मुश्किल और परेशानी यह है कि शिया अपने मौला व आक़ा के दर्शन से वंचित हैं। ग़ैबत का ज़माना शुरु होने के बाद से उनके ज़हूर का इन्तेज़ार करने वालों के दिलों को हमेशा यह तमन्ना बेताब करती रही है कि किसी भी तरह से यूसुफे ज़हरा (अ. स.) की ज़ियारत हो जाये। वह इस जुदाई में हमेशा ही रोते बिलकते रहते हैं। ग़ैबते सुग़रा के ज़माने में शिया अपने महबूब इमाम से उनके खास नायबों के ज़रिये संबंध स्थापित किये हुए थे और उनमें से कुछ लोगों को इमाम (अ. स.) की ज़ियारत का भी श्रेय प्राप्त हुआ और इस बारे में बहुत सी रिवायतें मौजूद हैं, लेकिन इस ग़ैबते कुबरा के ज़माने में, जिस में इमाम (अ. स.) पूर्ण रूप से ग़ैबत को अपनाये हुए हैं और किसी से भी उनकी मुलाक़ात संभव नही है, वह संबंध ख़त्म हो गया है। अब इमाम (अ. स.) से आम तरीक़े से या ख़ास लोगों के ज़रिये मुलाक़ात करना भी संभव नहीं है।
लेकिन फिर भी बहुत से आलिमों का मत है कि इस ज़माने में भी उस चमकते हुए चाँद से मुलाक़ात करना संभव है और अनेकों बार ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं। कुछ महान आलिमों जैसे अल्लामा बहरुल उलूम, मुकद्दस अरदबेली और सय्यद इब्ने ताऊस आदि की इमाम से मुलाक़ात की घटनाएं बहुत मशहूर हैं और बहुत से आलिमों ने अपनी किताबों में उनका उल्लेख किया है...
लेकिन हम यहाँ पर यह बता देना ज़रुरी समझते हैं कि इमामे ज़माना (अज्जल अल्लाहु तआला फ़रजहू शरीफ़) की मुलाक़ात के बारे में निम्न लिखित बातो पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए।
पहली बात तो यह है कि इमाम महदी (अ. स.) से मुलाक़ात बहुत ही ज़्यादा परेशानी और लाचारी की हालत में होती है लेकिन कभी कभी आम हालत में और किसी परेशानी के बग़ैर भी हो जाती है। इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में यूँ कहें कि कभी इमाम (अ. स.) की मुलाक़ात मोमेनीन की मदद की वजह से होती है जब कुछ लोग परेशानियों में घिर जाते हैं और तन्हाई व लाचारी का एहसास करते हैं तो उन्हें इमाम की ज़ियारत हो जाती है। जैसे कोई हज के सफर में रास्ता भटक गया और इमाम (अ. स.) अपने किसी सहाबी के साथ तशरीफ़ लाये और उसे भटकने से बचा लिया। इमाम (अ. स.) से अधिकतर मुलाक़ातें इसी तरह की हैं।
लेकिन कुछ मुलाक़ातें सामान्य हालत में भी हुई हैं और मुलाक़ात करने वालों को अपनी आध्यात्मिक उच्चता की वजह से इमाम (अ. स.) से मुलाक़ात करने का श्रेय प्राप्त हुआ।
अतः इस पहली बात के मद्दे नज़र यह ध्यान रहे कि इमाम (अ.स.) से मुलाक़ात के संबंध में हर इंसान के दावे को क़बूल नहीं किया जा सकता।
दूसरी बात ये है कि ग़ैबते कुबरा के ज़माने में ख़ास तौर पर आज कल कुछ लोग इमामे ज़माना (अ. स.) से मुलाक़ात का दावा कर के मशहूर होने के चक्कर में रहते हैं। वह अपने इस काम से बहुत से लोगों को अक़ीदे और अमल में गुमराह कर देते हैं। वह कुछ बे-बुनियाद व निराधार दुआओं को पढ़ने और कुछ ख़ास काम करने के आधार पर इमामे ज़माना की ज़ियारत करने का भरोसा दिलाते हैं। वह इस तरह उस ग़ायब इमाम की मुलाक़ात को सबके लिए एक आसान काम के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जबकि इस बात में कोई शक नहीं है कि इमाम (अ. स.) ख़ुदा वन्दे आलम के इरादे के अनुसार पूर्ण रूप से ग़ैबत में हैं और सिर्फ कुछ गिने चुने शार्ष के लोगों से ही इमाम (अ. स.) की मुलाक़ात होती है और उनकी निजात का रास्ता भी अल्लाह के करम को प्रदर्शित करने वाले इमाम का करम है।
तीसरी बात यह है कि मुलाकात सिर्फ़ इसी सूरत में संभव है जब इमामे ज़माना (अ. स.) उस मुलाक़ात में कोई मसलेहत या भलाई देखें। अतः अगर कोई मोमिन अपने दिल में इमाम (अ. स.) की ज़ियारत का शौक पैदा करे और इमाम ( अ. स.) से मुलाक़ात न हो सके तो फिर ना उम्मीदी का शिकार नहीं होना चाहिए और इसको इमाम (अ. स.) के करम के न होने की निशानी नहीं मानना चाहिए, जैसा कि जो अफराद इमाम (अ. स.) से मुलाक़ात में कामयाब हुए हैं उस मुलाक़ात को तक़वे और फ़ज़ीलत की निशानी बताने लगे।
नतिजा यह निकलता है कि इमाम ज़माना (अ. स.) के नूरानी चेहरे की ज़ियारत और दिलों के महबूब से बात चीत करना वास्तव में एक बहुत बड़ी सआदत है लेकिन अइम्मा (अ. स.) ख़ास तौर पर ख़ुद इमामे ज़माना (अ. स.) अपने शिओं से ये नहीं चाहते कि वह उन से मुलाक़ात की कोशिश करें और अपने इस मक़सद तक पहुँचने के लिए चिल्ले ख़ीँचें या जंगलों में भटकते फिरें। बल्कि इसके विपरीत आइम्मा ए मासूमीन (अ. स.) ने बहुत ज़्यादा ताकीद की है कि हमारे शिओं को हमेशा अपने इमाम को याद रखना चाहिए, उनके ज़हूर के लिए दुआ करनी चाहिए, उनको ख़ुश रखने के लिए अपने व्यवहार व आचरण को सुधारना चाहिए और उनके महान उद्देश्यों के लिए आगे क़दम बढ़ाना चाहिए ताकि जल्दी से जल्दी दुनिया की आख़िरी उम्मीद के ज़हूर का रास्ता हमवार हो जाये और संसार उनके वजूद से सीधे तौर पर लाभान्वित हो सके।
हज़रत इमाम महदी (अ. स.) ख़ुद फरमाते हैं कि
”اٴَکثرُوا الدُّعاءَ بِتَعجِیْلِ الفرجِ، فإنَّ ذَلکَ فرَجُکُم“ मेरे ज़हूर के लिए बहुत ज़्यादा दुआएं किया करो, उसमें तुम्हारी ही भलाई और आसानी है।
उचित था कि हम यहाँ पर मरहूम हाज अली बगदादी (जो अपने ज़माने के नेक इंसान थे) की दिल्चस्प मुलाक़ात का सविस्तार वर्णन करते लेकिन संक्षेप की वजह से अब हम उसके महत्वपूर्ण अंशों की तरफ़ इशारा करते हैं।
वह मुत्तक़ी और नेक इंसान हमेशा बगदाद से काज़मैन जाया करते थे और वहाँ दो इमामों (हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ. स.) और हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी (अ. स.) की ज़ियारत किया करते थे। वह कहते हैं कि मेरे ज़िम्मे ख़ुम्स और कुछ अन्य शरई रक़म थी, इसी वजह से मैं नजफ़े अशरफ़ गया और उनमें से 20 दीनार आलमे फ़क़ीह शेख अन्सारी (अलैहिर्रहमा) को और 20 दीनार आलमे फ़क़ी शेख मुहम्मद हसन काज़मी (अलैहिर्रहमा) को और 20 दीनार आयतुल्लाह शेख मुहम्मद हसन शरुक़ी (अलैहिर्रहमा) को दिये और यह इरादा किया कि मेरे ज़िम्मे जो 20 दीनार बाक़ी रह गये हैं वह बग़दाद वापसी पर आयतुल्लाह आले यासीन (अलैहिर्रहमा) को दूँगा। जब जुमेरात के दिन बगदाद वापस आया तो सब से पहले काज़मैन गया और दोनों इमामों की ज़ियारत करने के बाद आयतुल्लाह आले यासीन के घर पर गया। मेरे ज़िम्मे खुम्स की रक्म का जो एक हिस्सा बाक़ी रह गया था वह उनकी खिदमत में पेश की और उन से इजाज़त माँगी कि इसमें से बाक़ी रक़म (इन्शाअल्लाह) बाद में ख़ुद आप को या जिस को मुस्तहक़ समझूँगा अदा कर दूंगा। वह मुझे अपने पास रोकने की ज़िद कर रहे थे, लेकिन मैं ने अपने ज़रुरी काम की वजह से उनसे माफ़ी चाही और ख़ुदा हाफिज़ी कर के बगदाद की तरफ़ रवाना हो गया। जब मैं ने अपना एक तिहाई सफर तय कर लिया तो रास्ते में एक तेजस्वी सैय्यिद को देखा। वह हरे रंग का अम्मामा बाँधे हुए थे और उन के गाल पर काले तिल का एक निशान था। वह ज़ियारत के लिए काज़मैन जा रहे थे। वह मेरे पास आये और मुझे सलाम करने के बाद बड़ी गर्म जोशी के साथ मुझ से हाथ मिलाया और मुझे गले लगा कर कहा खैर तो है कहाँ जा रहे हैं ?
मैं ने जवाब दिया : ज़ियारत कर के बगदाद जा रहा हूँ, उन्हों ने फरमाया : आज जुमे की रात है काज़मैन वापस जाओ और आज की रात वहीं रहो। मैं ने कहा : मैं नहीं जा सकता। उन्होंने कहाः तुम यह काम कर सकते हो, जाओ ताकि मैं यह गवाही दूँ कि तुम मेरे जद्द अमीरुल मोमिनीन (अ. स.) के और हमारे दोस्तों में से हो, और शेख भी गवाही देते हैं, ख़ुदा वन्दे आलम फरमाता है :
وَ اسْتَشْہِدُوا شَہِیدَیْنِ مِنْ رِجَالِکُم
और अपने मर्दों में से दो को गवाह बनाओ।
हाज अली बग़दादी कहते हैं कि मैं ने इस से पहले आयतुल्लाह आले यासीन से दर्ख्वास्त की थी कि मेरे लिए एक सनद लिख दें जिस में इस बात की गवाही हो कि मैं अहले बैत (अ. स.) के चाहने वालों में से हूँ ताकि इस सनद को अपने कफ़न में रखूँ। मैं ने सैय्यिद से सवाल किया आप मुझे कैसे पहचानते हैं और किस तरह गवाही देते हैं ? उन्होंने जवाब दिया : इंसान उस इंसान को किस तरह न पहचाने जो उस का पूरा हक़ अदा करता हो, मैं ने पूछा कौन सा हक़ ? उन्होंने कहा कि वही हक़ जो तुम ने मेरे वक़ील को दिया है। मैं ने पूछा : आपका वक़ील कौन है ? उन्होंने फरमाया : शेख मुहम्मद हसन। मैं ने पूछा कि क्या वह आप के वक़ील हैं ? उन्होंने जवाब दिया : हाँ।
मुझे उनकी बातों पर बहुत ज़्यादा ताज्जुब हुआ ! मैं ने सोचा कि मेरे और उन के बीच कोई बहुत पुरानी दोस्ती है जिसे मैं भूल चुका हूँ, क्यों कि उन्हों ने मुलाक़ात के शुरु ही में मुझे मेरे नाम से पुकारा था। मैं ने यह सोचा चूँकि वह सैय्यिद हैं अतः मुझ से खुम्स की रक़म लेना चाहते हैं। अतः मैं ने उनसे कहा कि कुछ सहमे सादात मेरे ज़िम्मे है और मैं ने उसे खर्च करने की इजाज़त भी ले रखी है। यह सुन कर वह मुस्कुराए और कहा : जी हाँ, आप ने हमारे सहम का कुछ हिस्सा नजफ़ में हमारे वकीलों को अदा कर दिया है। मैं ने सवाल किया : क्या ये काम ख़ुदा वन्दे आलम की बारगाह में क़ाबिले क़बूल है ? उन्हों ने फरमाया : जी हाँ।
मैं ने सोचा भी कि यह सैय्यिद इस ज़माने के बड़े आलिमों को किस तरह अपना वकील बता रहे हैं, लेकिन एक बार फिर मुझे गफ़लत सी हुई और मैं इस बात को भूल गया।
मैं ने कहा : ऐ बुज़ुर्गवार ! क्या यह कहना सही है कि जो इंसान जुमे की रात हज़रत इमाम हुसैन (अ. स.) की ज़ियारत करे वह अल्लाह के अज़ाब से बचा रहता है। उन्होंने फरमाया : जी हाँ, यह बात सही है। अब मैं ने देखा कि उनकी आँखें फ़ौरन आंसूओं से भर गईं। कुछ देर बीतने के बाद हम ने अपने ापको काज़मैन के रौजे पर पाया, किसी सड़क और रास्ते से गुज़रे बग़ैर, हम रोज़े के सद्र दरवाज़े पर खड़े हुए थे, उन्होंने मुझसे फ़रमाया : ज़ियारत पढ़ो। मैं ने जवाब दिया : बुज़ुर्गवार मैं अच्छी तरह नहीं पढ़ सकूँगा। उन्होंने फरमाया : क्या मैं पढ़ूँ, ताकि तुम भी मेरे साथ पढ़ते रहो ? मैं ने कहा : ठीक है।
अतः उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम और अन्य इमामों पर एक एक कर के सलाम भेजा और हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ. स.) के नाम के बाद मेरी तरफ़ रुख कर के सवाल किया : क्या तुम अपने इमामे ज़माना को पहचानते हो ? मैं ने जवाब में कहा क्यों नहीं पहचानूंगा ! यह सुन कर उन्होंने फ़रमाया तो फिर उन पर सलाम करो। मैं ने कहा:
لسَّلامُ عَلَیْکَ یَا حُجَّةَ اللهِ یَا صَاحِبَ الزَّمَانِ یَابْنَ الْحَسَنِ!
अस्सलामो अलैक या हुज्जत अल्लाहे या साहेबज़्ज़मान यबनल हसन। वह बुज़ुर्गवार मुसुकुराए और फरमाया عَلَیکَ السَّلام وَ رَحْمَةُ اللّٰہِ وَ بَرَکَاتُہُ۔ अलैकस्सलाम व रहमतुल्लाहे व बरकातोह।
उस के बाद हरम में वारिद हुए और ज़रीह का बोसा लेकर मुझ से फरमाया: ज़ियारत पढ़ो। मैं ने अर्ज़ किया ऐ बुज़ुर्गवार मैं अच्छी तरह नहीं पढ़ सकता। यह सुन कर उन्होंने फरमाया : क्या मैं आप के लिए पढ़ूँ, मैं ने जवाब दिया : जी हाँ, अप ही पढ़ा दीजिए। उन्होंने अमीनुल्लाह नामक मशहूर ज़ियारत पढ़ी और फरमाया : क्या मेरे जद (पूर्वज) इमाम हुसैन (अ. स.) की ज़ियारत करना चाहते हो ? मैं ने कहा : जी हाँ, आज जुमे की रात है और यह हज़रत इमाम हुसैन (अ. स.) की ज़ियारत की रात है। उन्होंने हज़रत इमाम हुसैन (अ. स.) की मशहूर ज़ियारत पढ़ी। उस के बाद नमाज़े मगरिब का वक़्त हो गया। उन्होंने ने मुझ से फरमाया : नमाज़ को जमाअत के साथ पढ़ो। नमाज़ के बाद वह बुज़ुर्गवार अचानक मेरी नज़रों से गायब हो गए, मैं ने बहुत तलाश किया लेकिन वह न मिल सके।
फिर मेरे ध्यान में आया कि सैय्यिद ने मुझे नाम ले कर पुकारा था और मुझ से कहा था कि काज़मैन वापस लौट जाओ, जबकि मैं नहीं जाना चाहता था। उन्हों ने ज़माने के बड़े फ़क़ीहों और आलिमों को अपना वकील बताया और आखिर में मेरी नज़रों से अचानक गायब हो गये। इन तमाम बातों पर ग़ौर व फिक्र करने के बाद मुझ पर ये बात स्पष्ट हो गई कि वह हज़रत इमामे ज़माना (अ. स.) थे, लेकिन अफ़सोस कि मैं इस बात को बहुत देर के बाद समझ सका...